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Phir Ji Utha Muzaffarpur: फिर जी उठा मुजफ्फरपुर,… शहर दिनकर का बताया खजाना ढूंढ़ने पहुँचा, दाता राजेन्द्र शाह की स्मृति में सजेगी संगीत की महफिल

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Phir Ji Uthega Muzaffarpur: मुजफ्फरपुर में वर्ष 1957 के बिहार विधानसभा चुनाव की गहमा-गहमी थी। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और बिहार सरकार के मंत्री महेश प्रसाद सिंह कांग्रेस उम्मीदवार थे। उनके खिलाफ विपक्षी दलों ने महामाया प्रसाद ( जो आगे चलकर बिहार के मुख्यमंत्री बने) को उम्मीदवार बनाया था। महेश प्रसाद सिंह के खिलाफ डॉ. श्रीकृष्ण सिंह विरोधी खेमा साजिश कर रहा था। महेश बाबू गोशाला रोड में दाता राजेन्द्र प्रसाद (शाह) से आशीर्वाद लेने पहुंचे। दाता राजेन्द्र शाह ने अफसोस जताते हुए कहा कि तुम से पहले महामाया प्रसाद आ गया और मैंने उसे आशीर्वाद दे दिया। खैर , तुम आगे के चुनाव में फिर जीतकर मंत्री बनोगे। महेश बाबू की अप्रत्याशित हार बिहार की सियासत की ऐतिहासिक घटना थी।

शहर के सैंकड़ों श्रद्धालु 26 सितंबर को गोशाला रोड (मुजफ्फरपुर) में उसी दाता राजेंद्र शाह ( मुंगेर कोर्ट के पूर्व वकील) के मजार पर सालाना उर्स में माथा टेकने पहुंचे। दिल्ली से राष्ट्रीय स्तर के कव्वालों का 35 सदस्यीय दल मुजफ्फरपुर पहुंचा।। आगरा के मशहूर कव्वाल इमरान ताज और दिल्ली के कव्वाल ताजुद्दीन मुख्य आकर्षण रहे। दाता राजेंद्र शाह के दरबार में सूफी खानकाही कव्वाली की महफिल सजेगी और 27 सितंबर की शाम मझौलिया रोड स्थित होटल एमरल्ड में कव्वाली के अलग रंग की महफिल सजेगी।

सांप्रदायिक समरसता का अद्भुत मिसाल है दाता का मजार! कभी राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर और डॉ. श्याम नंदन किशोर जैसी साहित्यिक हस्तियां दाता राजेंद्र शाह की दुआओं से फूलीं-फलीं! पहले इस जलसे में हिन्दू और मुसलमान बढ़ -चढ़कर हिस्सा लेते थे। अब कुछ लोग दबी जुबान से कहते हैं कि यह हिन्दुओं का मजार है! वैसे गौर करें तो दाता राजेन्द्र शाह के दादा- गुरु दाता कम्मल शाह के मजार पर भी अपेक्षाकृत हिन्दू श्रद्धालुओं की तादाद अधिक होती है। श्रद्धा और इबादत को मजहब में बांटने से पहले आइए हम मुजफ्फरपुर में दाता राजेन्द्र शाह के मजार से संबंधित कुछ अलौकिक किस्से जान लें।

अक्सर सुनता रहता हूं कि अब वह मुजफ्फरपुर नहीं रहा, जो कभी हुआ करता था। अब वह तहजीब न रही, जो हर जाति-धर्म के लोगों को जलसों, मुशायरों, मजारों, गुरुद्वारों और दशहरा पंडालों तक खींच लाती थी। समारी खुशियां, बंदगी और संघर्ष साझे थे। न तो ईद में इत्र लगवाने में झिझक थी और न होली का गुलाल लगवाने में। बनारस बैंक चौक पर मुसलमान भाई दुर्गा पूजा की तैयारी में हांथ बंटाते थे और दाता कंबल शाह के मजार पर मुसलमानों से अधिक हिन्दुओं के सिर झुकते थे। शहर में शहीदी गुरु पर्व का नगर कीर्तन हो, दाता कम्मल शाह के मजार पर चादरपोशी के लिए जुलूस निकले या महाशिवरात्रि का जुलूस निकले, सजदे में सिर झुकने से कभी किसी मजहब को ठेस नहीं पहुंची। सामने की सड़क से जुलूस निकालने से किसी मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे की पाकीजगी नहीं गई। जिनकी आंखों ने बचपन में मुजफ्फरपुर का वो मंजर देखा है, वे बुजुर्ग लंबी सांसें लेते हुए कहते हैं कि सियासी दौर में वह मुजफ्फरपुर कहीं खो गया।

महानगरों और विदेशों में बस चुके लोग जब शहर आते हैं तो उनकी यादें, आंखें और जज्बात उस मुजफ्फरपुर को ढूंढ़ने निकल पड़ते हैं। निराला निकेतन में कदम रखते ही मायूस हो जाते हैं। सन्नाटा पसरा है, जहां आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की स्वर लहरियां गूंजती थीं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पदचिन्हों से गौरवान्वित लंगट सिंह कालेज की वह पहचान नहीं रही, जो पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर और आचार्य जेबी कृपलानी की साधना से संस्कारित थी। कलम के जादूगर रामबृक्ष बेनीपुरी की समाधि ( उनके द्वारा निर्मित) खंडहर बन गई है। वीणा कंसर्ट ने अपनी स्थापना के 117 वर्ष पूरे कर लिए हैं। हरिसभा दुर्गा पूजा समिति फिर दशहरा की तैयारी में है, लेकिन शहर में अब वह साझी संस्कृति नहीं रही, जिसमें गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को जीवन का पहला सम्मान मिला था। जहां से शरतचंद्र उपन्यासों के अमर पात्र बटोर गए थे। रमना गुरुद्वारा में शहीदी गुरु पर्व की तैयारी चल रही है, लेकिन रंजीत आइस एंड कोल्ड स्टोरेज वाले और दीपक होटल वाले नहीं रहे। एल एस कालेज की दुर्लभ किताबों को दीमक खा गए, जिन्हें पढ़ते -पढ़ाते रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ और ‘रश्मिरथी’ लिखने की दृष्टि- सामग्री पायी।

दिनकर इतिहास में ग्रेजुएट थे, परन्तु उनकी हिन्दी की रचनाएं कालेजों में पढ़ाई जाती थीं। कवि-साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। एलएस कालेज में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष पद पर उनकी नियुक्ति हुई। कक्षा में पढ़ाने से पहले घर में स्वाध्याय करने वाले शिक्षक अधिक सफल होते हैं। दिनकर शायद इसलिए भी गहन अध्ययन करते थे कि वे इतिहास में ग्रेजुएट थे। वे हिन्दी के छात्रों को पढ़ाते समय कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। पूर्व कुलपति एवं कवि डॉ. श्यामनंदन किशोर ने अपनी पुस्तक पुंडरीक में लिखा है कि दिनकर जी कक्षा के बाद उनसे फिडबैक लेते थे- मैंने कैसा पढ़ाया? छात्र किन-किन विषयों पर पाठ्य-पुस्तक की आलोचना, पूरी कविता की समीक्षा और उसकी व्याख्या परीक्षा के लिए चाहते हैं‌? उन्होंने रात-रात भर जागकर गुंजन, भूषण ग्रंथावली, हिन्दी साहित्य का इतिहास एवं साहित्यालोचन पढ़-पढ़कर टिप्पणियां तैयार की, जो बाद में उनकी रचनाओं में भी किसी न किसी रूप में समाहित हुईं। बताते चलें कि डॉ. श्यामनंदन किशोर और उनकी पत्नी डॉ. आशा किशोर उन दिनों दिनकर के छात्र-छात्रा थे।

खजाना से वंचित रहे दिनकर!

हालांकि दिनकर ने मुजफ्फरपुर में अपनी मेहनत और प्रतिभा की बदौलत साहित्य का अमूल्य खजाना हासिल कर लिया था, लेकिन उन्हें जीवन के अंतिम दिनों में इस बात का मलाल था कि वे बारीक त्रुटि की वजह से मुजफ्फरपुर में बड़े खजाने के पास पहुंच कर भी उसे लेने से वंचित रह गए थे। दिनकर जी अपनी डायरी ( पटना,13 जनवरी 1972) में लिखते हैं- ” बिंदु बाबू से सुन रखा था कि पटना में एक सूफी फकीर रहते हैं, बाबा काबुली शाह! उनके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी! कल पता चला कि आजकल वे फतुहा के पास कच्ची दरगाह में ठहरे हुए हैं। हम चार व्यक्ति बिंदु बाबू, राजेश्वर, नवल बाबू और मैं बाबा के दर्शन के लिए गए। काबुली शाह मस्जिद में ठहरे हुए थे। मेरा परिचय पूछते हुए पहली बात यह बोली- “दुनिया मांगने आया है या अल्लाह?” आगे जो बातें हुईं, रोमांचित करती हैं। दिनकर ने अर्ज किया आजकल मैं पोती के विवाह को लेकर फिक्र में हूं। बाबा ने बात को इस तरह टाल दिया, मानो वह कोई समस्या नहीं हो।
दिनकर आगे लिखते हैं -“बाबा ने कहा राजेंद्र शाह से तुम्हारी मुलाकात हुई थी! उनसे बात हुई थी! इससे मैं विशेष रूप से चकित हुआ! यह बात कैसे आ गई! राजेंद्र प्रसाद मुंगेर में वकील थे। वह कम्मल शाह के शिष्य थे। शराब बहुत पीते थे। एक दिन अदालत में बहस करते-करते मस्ती में आ गए और सब कुछ छोड़कर मुजफ्फरपुर ( संभवतः 1950 में) चले गए। कम्मल शाह के शिष्य की गद्दी पर बैठे और दाता राजेंद्र शाह के नाम से विख्यात हो गए। उन्होंने जब फकीरी ली थी, मैं मुजफ्फरपुर में प्रोफेसर था। किशोर ( डॉ. श्यामनंदन किशोर) के साथ राजेंद्र शाह के दर्शन को गया था और थोड़ी देर उनके दरबार में बैठा भी था। उन्होंने बार-बार आने को कहा था, मगर मुझे यह पार नहीं लगा। इस मुलाकात का जिक्र आज बाबा काबुली शाह ने किया! 20 वर्षों बाद आज एहसास हुआ कि मुजफ्फरपुर में एक खजाने के पास तक में पहुंच गया था, मगर कुछ ले नहीं सका। त्रुटियां भी कितनी बारीक होती हैं!”

मुजफ्फरपुर लौटकर नहीं आओगे

एक बार अखबार के लिए स्टोरी लिखने के लिए मैंने चर्चित कवयित्री एवं साहित्यकार डॉ. अनामिका जी ( श्यामनंद-आशा किशोर की पुत्री) को फोन किया। मुजफ्फरपुर सुनते ही वे आत्मीयता से बात करने लगीं। उन्होंने बताया कि दिनकर उनके मां-पिता के शिक्षक थे, फिर भी कवि सम्मेलनों में साथ ले जाते थे। किशोर जी की रचनाएं ‘हिमालय’ में छपवाते थे। डॉ. अनामिका ने एक रोचक संस्मरण बताया। दिनकर की संत-फकीरों में आस्था थी। श्यामनंदन किशोर के साथ दिनकर दाता कंबल शाह के मजार पर उर्स के मौके पर नातिया व सूफियाना कव्वाली का आनंद लिए। मजार पर चौथी पीढ़ी के दाता राजेंद्र प्रसाद से मुलाकात हुई। राजेंद्र प्रसाद मुंगेर में जमी हुई वकालत छोड़कर सिद्ध फकीर बन गए थे। उन्होंने दिनकर जी से कहा था-अरे तुम अब क्या आओगे? आज गंगा पार करोगे तो फिर लौटकर नहीं आओगे। बात सच निकली। उसी दिन पटना पहुंचते ही दिनकर राज्य सभा के उम्मीदवार घोषित कर दिए गए। वे सांसद बने और कॉलेज में उनका इस्तीफा आया। इसके बावजूद दिनकर को मलाल था कि वे खजाने से वंचित रह गए। दरअसल, डायरी में उन्होंने अलौकिक, अध्यात्मिक खजाने की ओर इशारा किया है।

जो खजाना हमारी आंखों के सामने है, वह हमें नहीं सूझता है या हम उसे नजरअंदाज करते हैं। सचमुच किसी वस्तु की अहमियत तब समझ में आती है, जब वह हमेशा के लिए खो जाती है। आज हमारे शहर में गांधीवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा ( मशहूर लेखक) जैसा अनमोल खजाना है, लेकिन हम उस खजाने का उपयोग करना नहीं जानते हैं।‌ जानकी वल्लभ शास्त्री से अनेकों बार मिला, लेकिन मैं इतना परिपक्व नहीं था कि सागर से गागर भर सकूं। अब अफसोस होता है।‌ अपना मुजफ्फरपुर अनमोल खजानों का शहर रहा है। हर कालखंड में यहां बौद्धिक, अध्यात्मिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और राष्ट्र गौरव के खजाने सामने आते रहे हैं। मुजफ्फरपुर खजानों का शहर है। रामधारी सिंह दिनकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, अयोध्या प्रसाद खत्री, रामबृक्ष बेनीपुरी, गांधीवादी चिंतक सच्चिदानन्द सिन्हा, गांधी मार्गी सुरेन्द्र कुमार, अयोध्या प्रसाद खत्री, शांति सुमन, राम इकबाल सिंह राकेश, रामजीवन शर्मा जीवन, मदन कश्यप, डॉ. कामेश्वर शर्मा, नवगीत के प्रवर्तक राजेन्द्र प्रसाद सिंह, डॉ. अनामिका, पंकज सिंह, श्यामनंदन किशोर , विजय कांत, डॉ. प्रमोद कुमार सिंह, रवींद्र उपाध्याय, डॉ. पूनम सिंह, डॉ. संजय पंकज, रामेश्वर द्विवेदी, अनीता सिंह और कुमार राहुल का मुजफ्फरपुर।

बाबा गरीबनाथ और गरीब नवाज दाता कम्मल शाह के मुजफ्फरपुर को हम भूमिहार-बनियों का शहर, कायस्थ -खत्री का शहर समझ बैठे! हम भूल गए कि यह बंगाली – मारवाड़ी और सिखों -सिंधियों का भी शहर है। नोनिया- तुरहा का भी शहर है। जितना हिन्दुओं का शहर है, उतना ही मुसलमानों का भी। ब्रिटिश काल में जब देश की राजधानी कोलकाता थी और बिहार -बंगाल का विभाजन नहीं हुआ था, बड़ी संख्या में अलग-अलग पेशे के लोग मुजफ्फरपुर में आ बसे।‌ जब देश का विभाजन हुआ, पूर्वी-पश्चिमी पाकिस्तान से बंगाली, पंजाबी और सिंधी भी आकर बसे।

“सर- जमीन-ए-हिंद पर अक्वाम- ए- आलम के ‘फिराक’
काफिले बसते गए हिन्दोस्तां बनता गया।”

शर्मनाक बात यह है कि हम अपने शहर के गौरवशाली अतीत को कभी भूमिहारों की कहानी तो कभी कायस्थों की कथा बताकर, कभी खत्रियों, कभी सिक्खों तो कभी बंगालियों की कहानी समझ कर भूलते जा रहे हैं। यह कहना मुश्किल है कि यह मारवाड़ियों का शहर है या बिहारियों का, बंगालियों या पंजाबियों का, हिन्दुओं या मुसलमानों का? सब ने मिलकर इसे साहित्यकारों, शिक्षाविदों, स्वतंत्रता सेनानियों, संस्कृति कर्मियों व मेहनती व्यवसायियों का शहर बनाया। आजादी के बाद के सात दशकों में मुजफ्फरपुर फैला अधिक, संवरा कम। बसने- उजड़ने का सिलसिला जारी है। वे चेहरे गौरैया की तरह गुम होते चले गए, जिनके दिल में मुजफ्फरपुर धड़कता था। कोई गोली-बंदूक के डर से तो कोई बेहतर रोजी-रोजगार की तलाश में। मुजफ्फरपुर का उजड़ना तो बंगलुरु, पूणे, मुम्बई और गुड़गांव में नए हिन्दुस्तान के आबाद होने से पहले ही शुरू हो गया था। कभी चित्रगुप्तपुरी से माड़ीपुर और मझौलिया तक, राजेंद्रपुरी से पंखा टोली व आमगोला खजूरबन्नी तक घर – घर में सरस्वती की साधना और चित्रगुप्त की आराधना होती थी। अब तो कायस्थ समाज भी तेजी से विलुप्त हो रहा है।

दीपक होटल वाले सरदार योगेन्दर सिंह, जोगा सिंह
रागी जत्थे ने शबद-कीर्तन से संगत को निहाल कर दिया।

हमारा मुजफ्फरपुर सियासी तिकड़म में अपनी पहचान खोता जा रहा। हम अपनी विरासत को बचा नहीं पाए।अब वह मुजफ्फरपुर नहीं है, जो शहीदी पर्व के मौके पर सड़क के दोनों किनारे खड़ा होकर पंच प्यारों को देखते ही शीश नवाता था। शीश आज भी नवाते हैं, लेकिन अब उतनी तादाद में सिख भाई नजर नहीं आते। अब सरदार योगेन्दर सिंह का दीपक होटल नहीं रहा। शेरपुर में एनएच किनारे रंजीत आइस एंड कोल्ड स्टोरेज आज भी है, लेकिन उसके मालिक दानवीर सरदार नहीं रहे। कोल्ड स्टोरेज के सामने हर रविवार की सुबह भिखारियों और गरीब – लाचार की भीड़ उमड़ती थी। रमजान के महीने में हर शाम इफ्तार पार्टी में जाने-पहचाने नेताओं की भीड़ बढ़ती जा रही है।‌ कारण सौ गिनाए जाते हैं, लेकिन सच यही है कि होली में हुलस कर नहीं मिलते।

जब शहर के रमना गुरुद्वारा साहिब से प्रभातफेरी निकलती थी, पुरुष -महिला और बच्चे नगर कीर्तन करते थे, प्रमुख सड़कों से गुजरते हुए नई बाजार के सिंधी गुरुद्वारा पहुंचते थे। सिंधी समाज की ओर से भव्य स्वागत किया जाता था। सिंधी समाज भी सिख समाज के अंग जैसा रहा। अब वो रौनक नहीं रहा। कल वाला मुजफ्फरपुर नहीं रहा। आज शहरवासी खोए हुए मुजफ्फरपुर को ढूंढने, दिनकर का बताया खजाना ढूंढने दादा राजेन्द्र शाह के मजार पर पहुंचेगा।

सिर्फ दिनकर जी की नहीं, बल्कि मुजफ्फरपुर के हजारों हिन्दुओं की दाता कम्मल शाह के मजार में गहरी आस्था रही है। राजेन्द्र प्रसाद ( जो आगे चलकर राजेंद्र शाह के नाम से मशहूर हुए, ने 1949-50 में 40 दिनों का चिल्ला काटा ( अन्न-जल त्याग) और सिद्धी पायी। गृहस्थ जीवन का त्याग कर संत बन गए। प्रचार से परहेज करते रहे। जब किसी कैमरा मैन ने तस्वीर लेनी चाही, निगेटिव पूर्णतः ब्लैक हो जाता था।दाता कम्मल शाह की तीसरी पीढ़ी के शिष्य दाता राजेन्द्र शाह की दुआओं ने भी अनगिनत मां के गोद भरे। बीमारों को चंगा किया। बिखरते दांपत्य को फिर से प्रेम व विश्वास के धागे में पिरोया। डॉ. श्यामनंदन किशोर, उनके परिजन और रिश्तेदार भी दोनों दाता ( कम्मल साह और राजेंद्र शाह) के मुरीद रहे हैं। राजेश प्रसाद जब से ( संभवतः 1957 में) पर्दा हुए, उनके मजार पर उर्स का आयोजन होता आ रहा है। जब भी मौका मिला उनका परिवार मजार पर चादरपोशी करने पहुंचता रहा है।

साहित्यकार डॉ. श्यामनंदन किशोर के साला बीरेश कुमार वर्मा का परिवार भी महान संत राजेन्द्र शाह के आशीर्वाद से फला-फूला। बीरेश कुमार वर्मा के पुत्र और बीबीसी के पूर्व पत्रकार मलय नीरव की यादों में दाता राजेन्द्र शाह के चमत्कार के अनेक किस्से हैं। वे बताते हैं कि शहर के मशहूर व्यवसायी युगल किशोर साहू के पिता को भी राजेन्द्र शाह का आशीर्वाद मिला था। मलय नीरव के शिक्षक और शहर के मशहूर शिक्षाविद राम उदगार शर्मा ने उन्हें एक किस्सा खुद सुनाया था। राम उदगार शर्मा के पुत्र विश्वनाथ शर्मा ( जो आगे चलकर अंग्रेजी के प्रोफेसर और महेश प्रसाद सिंह साइंस कालेज के प्रिंसिपल बने) जब स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे थे, अचानक मानसिक रूप से बीमार हो गए थे। वे सड़क पर खड़े होकर अंग्रेजी में धाराप्रवाह भाषण देने लगते थे। राम उदगार शर्मा बेटे को लेकर दाता राजेंद्र प्रसाद के दरबार में पहुंचे। दाता ने विश्वनाथ शर्मा को एक गुलाब का फूल सौंपते हुए कहा – रोजाना इसकी एक -एक पत्ती खाया करो। जिस दिन फूल की पत्तियां समाप्त हुईं, विश्वनाथ शर्मा पूर्णतः स्वस्थ हो गए।

मलय नीरव शहर की इस सांस्कृतिक विरासत को कायम रखने की कोशिश में जुटे हैं। मलय नीरव दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में और फिर विदेश में पढ़ने गए, पत्रकारिता की लंबी पारी खेली, लेकिन आज भी दिल-दिमाग से मुजफ्फरपुर के हैं। अपनी मिट्टी की सुगंध उन्हें बार-बार खींचकर मुजफ्फरपुर लाती रही ।अपनी जन्मभूमि का कर्ज चुकाने वे हर साल मुजफ्फरपुर आते हैं और दाता राजेन्द्र शाह की तपोभूमि ( मजार) पर उर्स के आयोजन में अहम भूमिका निभाते हैं। श्रद्धालुओं की आस्था पर विश्वास करें तो उर्स के मौके पर खुद दाता राजेन्द्र शाह वहां मौजूद होते हैं। मलय नीरव अपने माता-पिता की पुण्य स्मृति में 27 सितंबर की शाम मझौलिया रोड के होटल एमरल्ड में संगीत की महफिल सजाएंगे।

  • विभेष त्रिवेदी
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