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MALLIKARJUNA JYOTIRARLINGA: एकमात्र ज्योतिर्लिंग मल्लिकार्जुन, जहाँ देवी पार्वती के साथ शिवजी ज्योति रूप में विराजमान

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MALLIKARJUNA JYOTIRARLINGA: ज्योतिर्लिंग मल्लिकार्जुन

MALLIKARJUNA JYOTIRARLINGA: मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग आंध्र प्रदेश में कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के किनारे पर श्रीशैल पर्वत पर बना हुआ है।

मान्यता

मल्लिकर्जुन ज्योतिर्लिंग एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां देवी पार्वती के साथ शिव जी ज्योति रुप में विराजित है। यहां दर्शन करने से ही अश्वमेद्घ यज्ञ के समान्य पुण्य फल मिलता है।

मल्लिकार्जुन मंदिर के इतिहास में कई मेल है, जिसमे मल्लकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर और कुरुवती में मल्लिकार्जुन मंदिर शामिल हैं।

मल्लिकार्जुन जयोतिर्लिंग मंदिर का निर्माण बहुत पहले किया गया था, लेकिन 1336 से 1678 तक विजयनगर शासनकाल के दौरान इसका बड़े पैमाने पर जीर्णोद्धार किया गया। जैसा कि सातवाहन वंश के शिलालेखों से संकेत मिलता है, मंदिर की उत्पत्ति दूसरी शाताब्दी में हुई होगी। और कहा जाता है कि चालुक्य साम्राज्य (624-848 ई.) और काकतीय (953-1323 ई.) ने भी मंदिर के विकास में योगदान दिया था।

कुरुवती में मल्लिकार्जुन मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी की शुरुआत में पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य के शासन के दौरान किया गया था। यह मंदिर कर्नाटका राज्य के बेलारी जिले के कुरुवती शहर में स्थित है।

बसारालु में मल्लिकार्जुन मंदिर का निर्माण होयसेल साम्राज्य के राजा वीरा नरसिम्हा द्वितीय के शासन के दौरान 1234 ई. के आसपास हरिहर धननायक ने करवाया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण इस मंदिर को राष्ट्रीय महत्व के स्मारक के रुप में संरक्षित करता है।

इसे दक्षिण का कैलाश कहते हैं। अनेक धर्मग्रंथों में इस स्थान की महिमा बतायी गयी है। महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। कुछ ग्रंथों में तो यहॉ तक लिखा है कि श्रीशैल के शिखर के दर्शन मात्र करने से दर्शको के सभी प्रकार के कष्ट दूर होती है और आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है।

पौराणिक कथानक

शिव पार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिकेय और गणेश दोनो भाई विवाह के लिए आपस में कलह करने लगे। कार्तिकेय का कहना था कि वे बड़े है, इसलिए उनका विवाह पहले होना चाहिए, किन्तु श्री गणेश अपना विवाह पहले करना चाहते थे। इस झगड़े पर फैसला देने के लिए दोनों अपने माता-पिता भवानी और शंकर के पास पहुचे। उनके माता-पिता ने कहा कि तुम दोनों में जो कोई इस पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले यहाँ आ जाएगा, उसी का विवाह पहले होगा। शर्त सुनते ही कार्तिकेय जी पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए दौड़ पड़े। इधर स्थूलकाय श्री गणेश जी और उनका वाहन भी चूहा, भला इतनी शीघ्रता से वे परिक्रमा कैसे कर सकते थे। गणेश जी के सामने भारी समस्या उपलब्ध थी। श्री गणेश जी शरीर से जरुर स्थल है, किन्तु वे बुद्धि का सागर हैं। उन्होने कुछ सोच विचार किया और अपनी माता पार्वती तथा पिता देवाधिदेव महेश्वर से एक आसन पर बैठने का आग्रह किया। उन दोनों के आसन पर बैठ जाने के बाद श्री गणेश ने उनकी सात परिक्रमा की, फिर विधिवत् पूजन किया-
पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति य:।
तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम्।।

इस प्रकार श्री गणेश माता-पिता की परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होने वाले फल की प्राप्ती के अधिकारी बन गये। उनकी चतुर बुद्धी को देख कर शिव और पार्वती दोनों बहुत प्रसन्न हुए और उन्होने श्री गणेश का विवाह भी करा दिया।जिस समय स्वामी कार्तिकेय सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके वापस आये, उस समय श्रीगणेश जी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पत्रियों सिद्धी और बुद्धि के साथ हो चुका था। इतना ही नहीं श्री गणेशजी को उनकी सिद्धी नामक पत्नी से क्षेम तथा बुद्धि नामक पत्नी से लाभ ये दो पुत्ररत्न भी मिल गये थे। भ्रमणशील और जगत् का कल्याण करने वाले देवर्षि नारद ने स्वामी कार्तिकेय से यह सारा वृत्तांत कहा सुनाया। श्री गणेश का विवाह और उन्हे पुत्र लाभ का समाचार सुनकर स्वामी कार्तिकेय जल उठे। इस प्रकारण से नाराज कार्तिकेय ने शिष्टाचार का पालन करते हुए अपने माता-पिता के चरण छुए और वहाँ से चले दिये।

माता-पिता से अलग होकर कार्तिक स्वामी क्रौंच पर्वत पर रहने लगे। शिव और पार्वती ने अपने पुत्र कार्तिकेय को समझा बुझाकर बुलाने हेतु देवर्षि नारद को क्रौंच पर्वत पर भेजा। देवर्षि नारद ने बहुत प्रकार से स्वामी को मनाने का प्रयास किया, किन्तु वे वापस नहीं आये। उसके बाद कोमल हृदय माता पार्वती पुत्र स्नेह में व्याकुल हो उठीं। वे भगवान शिव जी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुँच गईं। इधर स्वामी कार्तिकेय को क्रौंच पर्वत अपने माता-पिता के आगमन की सूचना मिल गई और वे वहाँ से तीन योजना अर्थात छत्तीस किलोमीटर दूर चले गये। कार्तिकेय के चले जाने पर भगवान शिव उस क्रौंच पर्वत पर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गये, तभी से वे मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। मल्लिका माता पार्वती का नाम है, जबकि अर्जुन भगवान शंकर को कहा जाता है। इस प्रकार सम्मिलित रूप से मल्लिकार्जुन नाम उक्त ज्योतिर्लिंग का जगत् में प्रसिद्ध हुआ।

अन्य कथानक

एक अन्य कथानक के अनुसार कौंच पर्वत के समीप में ही चन्द्रगुप्त नामक किसी राजा की राजधानी थी। उनकी राजकन्या किसी संकट में उलझ गयी थी। उस विपत्ति से बेचने के लिए वह अपने पिता के राजमहल से भागकर पर्वतराज की शरण में पहुँच गयी। वह कन्या ग्वालों के साथ कन्दमूल खाती और दूध पीती थी। इस प्रकार उसका जीवन-निर्वाह उस पर्वत पर होने लगा। उस कन्या के पास एक श्यामा (काली) गौ थी, जिसकी सेवा वह स्वयं करती थी। उस गौ के साथ विचित्र घटना घटित होने लगी। कोई व्यक्ति छिपकर प्रतिदिन उस श्यामा का दूध निकाल लेता था। एक दिन उस कन्या ने किसी चोर को श्यामा का दूध दुहते हुए देख लिया, तब क्रोध में आगबबूला हो उसको मारने के लिए दौड़ पड़ी। जब वह गौ के समीप पहुँची, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, क्योंकि वहाँ उसे एक शिवलिंग के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दिया। आगे चलकर उस राजकुमकारी ने उस शिवलिंग के ऊपर एक सुन्दर सा मंदिर बनवा दिया। वही प्राचीन शिवलिंग आज मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर का भलीभाँति सर्वेक्षण करने के बाद पुरातत्ववेत्ताओं ने अनुमान किया है कि इसका निर्माण कार्य समय-समय आते रहे हैं।

अन्य तीर्थ एवं दर्शनीय स्थल

मुख्य मंदिर के बाहर पीपल पाकर का सम्मिलित वृक्ष है। उसके आस-पास चबूतरा है। दक्षिण भारत के दूसरे मंदिरों के समान यहाँ भी मूर्ती तक जाने का टिकट कार्यालय से लेना पड़ता है। पूजा का शुल्क टिकट भी पृथक् होता है। यहाँ लिंग मूर्ति का स्पर्श प्राप्त होता है। मल्लिकार्जुन मंदिर के पीछे पार्वती मंदिर है। इन्हे मल्लिका देवी कहते हैं। सभा मंडप में नन्दी की विशाल मूर्ति है।

पातालगंगा – मंदिर के पूर्वद्वार से लगभग दो मील पर पातालगंगा है। इसका मार्ग कठिन है। एक मील उतार और फिर 852 सीढ़ीयाँ हैं। पर्वत के नीचे कृष्णा नदी है। यात्री स्नान करके वहाँ चढ़ाने के लिए जल लाते है। वहाँ कृष्णा नदी में दो नाले मिलते हैं। वह स्थान त्रिवेणी कहा जाता है। उसके समीप पूर्व की ओर एक गुफा में भैरवादि मूर्तियाँ हैं। यह गुफा कई मील गहरी कही जाती है। अब यात्री मोटर बस से 4 मील आकर कृष्णा में स्नान करते है।

भ्रमराम्बादेवी- मल्लिकार्जुन मंदिर से पश्चिम में दो मील पर यह मंदिर है। यह 51 शक्तिपीठों में है। यहाँ सती की ग्रीवा गिरी थी

शिखरेश्वर- मल्लिकार्जुन मंदिर से 6 मील पर शिखरेश्वर तथा हाटकेश्वर मंदिर है। यह मार्ग कठिन है।
विल्वन- शिखरेश्वेर से 6 मील पर एकम्मा देवी का मंदिर घोर वन में है। यहाँ मार्ग दर्शक एवं सुरक्षा के बिना यात्रा संभव नहीं। हिंसक पशु इधर बन में बहुत है।

श्रीशैल का यह पूरा क्षेत्र घोर वन में है। अत: मोटर मार्ग ही है। पैदल यहाँ की यात्रा केवल शिवरात्रि पर होती है।

विजय नगर के महाराजा द्वारा निर्माण

आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व श्री विजयनगर के महाराजा कृष्णराय यहाँ पहुचे थे। उन्होने यहाँ एक सुन्दर मण्डप का भी निर्माण कराया था, जिसका शिखर सोने का बना हुआ था। उनके डेढ़ सौ वर्षों बाद महाराज शिवाजी भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतु क्रौंच पर्वत पर पहुँचे थे। उन्होने मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर यात्रियों के लिए एक उत्तम धर्मशाला बनवायी थी। इस पर्वत पर बहुत से शिवलिंग मिलते है।

यहाँ पर महाशिवरात्री के दिन मेला लगता है। मन्दिर के पास जगदम्बा का भी एक स्थान है। यहाँ माँ पार्वती को भ्रमराम्बा कहा जाता है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की पहाड़ी से पाँच किलोमीटर नीचे पातालगंगा के नाम से प्रसिद्ध कृष्णा नदी हैं, जिसमें स्नान करने का महत्व शास्त्रों में वर्णित है।

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